http://dhammacitta.org/perpustakaan/tag/tipitaka/
http://www.buddhanet.net/ebooks_s.htm
http://www.tipitaka.org/
प्राचीन भारत की सभ्यता, संस्कृति तथा शासन कला का अध्ययन करने के पूर्व इतिहास की उन सामग्रियों का अध्ययन करना अत्यावश्यक है जिनके द्वारा हमें प्राचीन भारत के इतिहास का ज्ञान होता है। यों तो भारत के प्राचीन साहित्य तथा दर्शन के संबंध में जानकारी के अनेक साधन उपलब्ध हैं, परन्तु भारत के प्राचीन इतिहास की जानकारी के साधन संतोषप्रद नहीं है। उनकी न्यूनता के कारण अति प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं शासन का क्रमवद्ध इतिहास नहीं मिलता है। फिर भी ऐसे साधन उपलब्ध हैं जिनके अध्ययन एवं सर्वेक्षण से हमें भारत की प्राचीनता की कहानी की जानकारी होती है। इन साधनों के अध्ययन के बिना अतीत और वर्तमान भारत के निकट के संबध की जानकारी होती है। इन साधनों के अध्ययन के बिना अतीत और वर्तमान भारत के निकट के संबंध की जानकारी करना भी असंभव है।
प्राचीन भारत
के इतिहास की जानकारी के साधनों को दो भागों में बाँटा जा सकता
है-साहित्यिक साधन और पुरातात्विक साधन, जो देशी और विदेशी दोनों हैं।
साहित्यिक साधन दो प्रकार के हैं-धार्मिक साहित्य और लौकिक साहित्य।
धार्मिक साहित्य भी दो प्रकार के हैं-ब्राह्मण ग्रन्थ और अब्राह्मण ग्रन्थ।
ब्राह्मण ग्रन्थ दो प्रकार के हैं-श्रुति जिसमें वेद ब्राह्मण उपनिषद
इत्यादि आते हैं और स्मृति जिसके अन्तर्गत रामायण महाभारत पुराण स्मृतियाँ
आदि आती हैं। लौकिक साहित्य भी चार प्रकार के हैं-ऐतिहासिक साहित्य विदेशी
विवरण, जीवनी और कल्पना प्रधान तथा गल्प साहित्य।
प्राचीन
भारतीय इतिहास की जानकारी के प्रमुख साधन साहित्यिक ग्रन्थ हैं जिन्हें दो
उपखण्डों में रखा जा सकता है-धार्मिक साहित्य और लौकिक साहित्य। इनका
पृथक-पृथक उल्लेख करना आवश्यक है।
ब्राह्मण या धार्मिक साहित्य-
ब्राह्मण
ग्रन्थ प्राचीन भारतीय इतिहास का ज्ञान प्रदान करने में अत्यधिक सहयोग देते
हैं। भारत का प्राचीनतम साहित्य प्रधानतः धर्म-संबंधी ही है। ऐसे अनेक
ब्राह्मण ग्रन्थ हैं जिनके द्वारा प्राचीन भारत की सभ्यता तथा संस्कृति की
कहानी जानी जाती है। वे निम्नलिखित मुख्य हैं-
(क) वेद-
ऐसे ग्रन्थों में वेद सर्वाधिक प्राचीन हैं और वे सबसे पहले आते हैं। वेद
आर्यों के प्राचीनत ग्रन्थ हैं जो चार हैं-ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और
अथर्ववेद से आर्यों के प्रसार; पारस्परिक युद्ध; अनार्यों, दासों, दासों और
दस्युओं से उनके निरंतर संघर्ष तथा उनके सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक
संगठन की विशिष्ट मात्रा में जानकारी प्राप्त होती है। इसी प्रकार अथर्ववेद
से तत्कालीन संस्कृति तथा विधाओं का ज्ञान प्राप्त होता है।
(ख) ब्राह्मण-
वैदिक मन्त्रों तथा संहिताओं की गद्य टीकाओं को ब्राह्मण कहा जाता है।
पुरातन ब्राह्मण में ऐतरेय, शतपथ, पंचविश, तैतरीय आदि विशेष महत्वपूर्ण
हैं। ऐतरेय के अध्ययन से राज्याभिषेक तथा अभिषिक्त नृपतियों के नामों का
ज्ञान प्राप्त होता है। शथपथ के एक सौ अध्याय भारत के पश्चिमोत्तर के
गान्धार, शाल्य तथा केकय आदि और प्राच्य देश, कुरु, पांचाल, कोशल तथा विदेह
के संबंध में ऐतिहासिक कहानियाँ प्रस्तुत करते हैं। राजा परीक्षित की कथा
ब्राह्मणों द्वारा ही अधिक स्पष्ट हो पायी है।
(ग) उपनिषद-उपनिषदों
में ‘बृहदारण्यक’ तथा ‘छान्दोन्य’, सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। इन ग्रन्थों से
बिम्बिसार के पूर्व के भारत की अवस्था जानी जा सकती है। परीक्षित, उनके
पुत्र जनमेजय तथा पश्चातकालीन राजाओं का उल्लेख इन्हीं उपनिषदों में किया
गया है। इन्हीं उपनिषदों से यह स्पष्ट होता है कि आर्यों का दर्शन विश्व के
अन्य सभ्य देशों के दर्शन से सर्वोत्तम तथा अधिक आगे था। आर्यों के
आध्यात्मिक विकास प्राचीनतम धार्मिक अवस्था और चिन्तन के जीते जागते जीवन्त
उदाहरण इन्हीं उपनिषदों में मिलते हैं।
(घ) वेदांग-युगान्तर
में वैदिक अध्ययन के लिए छः विधाओं की शाखाओं का जन्म हुआ जिन्हें
‘वेदांग’ कहते हैं। वेदांग का शाब्दिक अर्थ है वेदों का अंग, तथापि इस
साहित्य के पौरूषेय होने के कारण श्रुति साहित्य से पृथक ही गिना जाता है।
वे ये हैं-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्दशास्त्र तथा ज्योतिष। वैदिक
शाखाओं के अन्तर्गत ही उनका पृथकृ-पृथक वर्ग स्थापित हुआ और इन्हीं वर्गों
के पाठ्य ग्रन्थों के रूप में सूत्रों का निर्माण हुआ। कल्पसूत्रों को चार
भागों में विभाजित किया गया-श्रौत सूत्र जिनका संबंध महायज्ञों से था,
गृह्य सूत्र जो गृह संस्कारों पर प्रकाश डालते थे, धर्म सूत्र जिनका संबंध
धर्म तथा धार्मिक नियमों से था, शुल्व सूत्र जो यज्ञ, हवन-कुण्ठ बेदी, नाम
आदि से संबंधित थे। वेदांग से जहाँ एक ओर प्राचीन भारत की धार्मिक अवस्थाओं
का ज्ञान प्राप्त होता है, वहाँ दूसरी ओर इसकी सामाजिक अवस्था का भी।
(ङ) रामायणः महाभारत—वैदिक
साहित्य के उत्तर में रामायण और महाभारत नामक दो महाकाव्य साहित्य का
प्रणयन हुआ। सम्पूर्ण धार्मिक साहित्य में ये दोनों महाकाव्य अपना विशिष्ट
स्थान रखते हैं। रामायण की रचना महर्षि बाल्मीकि ने की जिसमें अयोध्या की
रामकथा है। इसमें राज्य सीमा, यवनों और शकों के नगर, शासन कार्य रामराज्य
आदि का वर्णन है। मूल महाभारत का प्रणयन व्यास मुनि ने किया। महाभारत का
वर्तमान रूप प्राचीन इतिहास कथाओं उपदेशों आदि का भण्डार है। इस ग्रन्थ से
भारत की प्राचीन सामाजिक तथा धार्मिक अवस्थाओं पर प्रकाश पड़ता है। इन
दोनों महाकाव्यों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे आर्य संस्कृति के
दक्षिण में प्रसार का निर्देश करते हैं। रामायण में तत्कालीन पौर जनपदों और
महाभारत से ‘सुधमां’ और ‘देवसभा’ का हमें जो ज्ञान प्राप्त हुआ है, उससे
पता चलता है कि राजा किस सीमा तक स्वेच्छाचारी था और कहां तक उसके प्रभाव
और कार्य की सीमायें इन राजनीतिक संस्थाओं तथा प्रजा प्रतिनिधित्व द्वारा
परिमित थी।
(च) पुराण-
महाकाव्यों के पश्चात् पुराण आते हैं जिनकी संख्या अठारह है। इनकी रचना का
श्रेय ‘सूत’ लोमहर्षण अथवा उनके पुत्र उग्रश्रवस या उग्रश्रवा को दिया
जाता है। पुराणों में पाँच प्रकार के विषयों का वर्णन सिद्धान्ततः इस
प्रकार है-सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वंतर तथा वंशानुचरित। सर्ग बीज या आदि
सृष्टि का पुराण है प्रतिसर्ग प्रलय के बाद की पुनर्सृष्टि को कहते हैं,
वंश में देवताओं या ऋषियों के वंश वृक्षों का वर्णन है, मन्वन्तर में कल्प
के महायुगों का वर्णन है जिनमें से प्रत्येक में मनुष्य का पिता एक मनु
होता है और वंशानुचरित पुराणों के वे अंग हैं जिनमें राजवंशों की तालिकायें
दी हुई हैं और राजनीतिक अवस्थाओं, कथाओं और घटनाओं के वर्णन हैं।
उपर्युक्त पांच पुराण के विषय होते हुए भी अठारहों पुराणों में वंशानुचरित
का प्रकरण प्राप्त नहीं होता। यह दुर्भाग्य ही है क्योंकि पुराणों में जो
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से अधिक महत्वपूर्ण विषय है, वह वंशानुचरित है।
वंशानुचरित केवल भविष्य, मत्स्य, वायु, विष्णु, ब्रह्माण्ड तथा भागवत
पुराणों में ही प्राप्त होता है। गरुड़-पुराण में भी पौरव, इक्ष्वाकु और
बार्हदय राजवंशों की तालिका प्राप्त होती है। पर इनकी तिथि पूर्णतया
अनिश्चित है। पुराणों की भविष्यवाणी शैली में कलियुग के नृपतियों की
तालिकाओं के साथ शिशुनाग, नन्द, मौर्य, शुंग, कण्व, आन्ध्र तथा गुप्तवंशों
की वंशावलियाँ भी प्राप्त होती हैं। शिशुनागों में ही बिम्बिसार एवं
अजातशत्रु का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार पुराण चौथी शताब्दी की स्थितियों
का उल्लेख करते हैं। मौर्य वंश के संबंध में विष्णु पुराण में अधिक उल्लेख
मिलते हैं। ठीक इसी प्रकार मत्स्य पुराण में मान्ध्र वंश का पूरा उल्लेख
मिलता है। वायु पुराण गुप्त सम्राटों की शासन प्रणाली पर प्रकाश डालते हैं।
इन पुराणों में शूद्रों और म्लेच्छों की वंशावली भी दी गयी है। आभीर, शक,
गर्दभ, यवन, तुषार, हूण आदि के उल्लेख इन्हीं सूचियों में मिलते हैं।
(छ) स्मृतियाँ–ब्राह्मण
ग्रन्थों में स्मृतियों का भी ऐतिहासिक महत्व है। मनु, विष्णु,
याज्ञवल्क्य नारद, वृहस्पति, पराशर आदि की स्मृतियाँ प्रसिद्ध हैं जो धर्म
शास्त्र के रूप में स्वीकार की जाती हैं। मनुस्मृति में जिसकी रचना संभवतः
दूसरी शताब्दी में की गयी है, धार्मिक तथा सामाजिक अवस्थाओं का पता चलता
है। नारद तथा वहस्पति स्मृतियों से जिनकी रचना करीब छठी सदी ई. के आस-पास
हुई थी, राजा और प्रजा के बीच होने वाले उचित संबंधों और विधियों के विषय
में जाना जा सकता है। इसके अतिरिक्त पराशर, अत्रि हरिस, उशनस, अंगिरस, यम,
उमव्रत, कात्यान, व्यास, दक्ष, शरतातय, गार्गेय वगैरह की स्मृतियाँ भी
प्राचीन भारत की सामाजिक और धार्मिक अवस्थाओं के बारे में बतलाती हैं।
अब्राह्मण ग्रन्थ-
अब्राह्मण ग्रन्थ-
धार्मिक साहित्य के ब्राह्मण ग्रन्थों के अतिरिक्त अब्राह्मण ग्रन्थों से उस समय की विभिन्न अवस्थाओं का पता चलता है।
(क) बौद्ध ग्रन्थ-बौद्धमतावल्बियों ने जिस साहित्य का सृजन किया, उसमें भारतीय इतिहास की जानकारी के लिए प्रचुर सामग्रियाँ निहित हैं। ‘त्रिपिटक’ इनका महान ग्रन्थ है। सुत, विनय तथा अमिधम्म मिलाकर ‘त्रिपिटक’ कहलाते हैं। बौद्ध संघ, मिक्षुओं तथा भिक्षुणियों के लिये आचरणीय नियम विधान विनय पिटक में प्राप्त होते हैं। सुत्त पिटक में बुद्धदेव के धर्मोपदेश हैं। गौतम निकायों में विभक्त हैं-
प्रथम दीर्घ
निकाय में बुद्ध के जीवन से संबद्ध एवं उनके सम्पर्क में आये व्यक्तियों के
विशेष विवरण हैं। दूसरे संयुक्त निकाय में छठी शताब्दी पूर्व के राजनीतिक
जीवन पर प्रकाश पड़ता है, किंतु सामाजिक और आर्थिक स्थिति की जानकारी इससे
अधिक होती है। तीसरे मझिम निकाय को भगवान बुद्ध को दैविक शक्तियों से युक्त
एक विलक्षण व्यक्ति मानता है।
चौथे,
अंगुत्तर निकाय में सोलह महानपदों की सूची मिलती हैं। पाँचवें, खुद्दक
निकाय लघु ग्रंथों का संग्रह है जो छठी शताब्दी ई. पूर्व से लेकर मौर्य काल
तक का इतिहास प्रस्तुत करता है। अमिधम्म पिटक में बौद्ध धर्म के दार्शनिक
सिद्धान्त हैं। कुछ अन्य बौद्ध ग्रंथ भी हैं। मिलिंदमन्ह में यूनानी शाशक
मिनेण्डर और बौद्ध मिक्षु नागसेन के वार्तालाप का उल्लेख है।
‘दीपवंश’
मौर्य काल के इतिहास की जानकारी देता है। ‘महावंश’ भी मौर्यकालीन इतिहास को
बतलाता है। ‘महाबोधिवंश’ मौर्य काल का ही इतिहास माना जाता है। ‘महावस्तु’
में भगवान बुद्ध के जीवन को बिन्दु बनाकर छठी शताब्दी ई. पूर्व के इतिहास
को प्रस्तुत किया गया है। ‘ललित विस्तार’ में बुद्ध की ऐहिक लीलाओं का
वर्णन है जो महायान से संबद्ध है। पाली की ‘निदान कथा’ बोधि सत्वों का
वर्णन करती है। यातिमोक्ख, महावग्ग, चुग्लवग्ग, सुत विभंग एवं परिवार में
भिक्खु-भिक्खुनियों के नियमों का उल्लेख है। ये पाँचों ग्रन्थ ‘विनय’ के
अन्तर्गत आते हैं।
अमिधम्म के
सात संग्रह है जिनमें तत्वज्ञान की चर्चा की गयी है। ऐतिहासिक ज्ञान के लिए
त्रिपिटकों का अध्ययन आवश्यक है क्योंकि इसमें बौद्ध संघों के संगठनों का
उल्लेख किया गया है। इसी प्रकार बौद्धग्रन्थों में जातक कथाओं का दूसरा
महत्वपूर्ण स्थान है जिनकी संख्या 549 है। ‘‘इनका महत्व केवल इसीलिए नहीं
है कि उनका साहित्य और कला श्रेष्ठ है, प्रत्युत तीसरी शताब्दी ई. पूर्व की
सभ्यता के इतिहास की दृष्टि से भी उनका वैसा ऊँचा मान है।’’ जातक में
भगवान बुद्ध के जन्म के पूर्व की कथाएँ उल्लिखित हैं।
(ख) जैन ग्रन्थ-
प्राचीन भारतीय इतिहास का ज्ञान प्राप्त करने के लिए जैन ग्रन्थ भी उपयोगी
हैं। ये प्रधानतः धार्मिक हैं। इन ग्रन्थों में ‘परिशिष्ट पर्वत’ विशेष
महत्वपूर्ण हैं। ‘भद्रबाहु चरित्र’ दूसरा प्रसिद्ध जैन ग्रन्थ है जिसमें
जैनाचार्य भद्रबाहु के साथ-साथ चन्द्रगुप्त मौर्य के संबंध में भी उल्लेख
मिलता है। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त कथा-कोष, पुण्याश्रव-कथाकोष, त्रिलोक
प्रज्ञस्ति, आवश्यक सूत्र, कालिका पुराण, कल्प सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र
आदि अनेक जैन ग्रन्थ भारतीय इतिहास की सामग्रियां प्रस्तुत करते हैं। इनके
अतिरिक्त दीपवंश, महावंश, मिलन्दिपन्हो, दिव्यावदान आदि ग्रन्थ की इन
दोनों धर्मों तथा मौर्य साम्राज्य के संबंध में यत्र-तत्र उल्लेख करते हैं।
लौकिक साहित्य
ऐतिहासिक सामग्रियों की उपलब्धि के दृष्टिकोण से लौकिक साहित्य को प्रमुखतः निम्न भागों में बाँटा जा सकता है-
(क) ऐतिहासिक ग्रन्थः
ऐसे अनेक विशुद्ध ऐतिहासिक ग्रंथ है जिनमें केवल सम्राट तथा शासन से
संबंधित तथ्यों का ही उल्लेख किया गया है। ऐसे ग्रन्थों में कल्हण कृत
‘राजतरंगिणी’ नामक ग्रन्थ सर्वप्रथम आता है जो पूर्णतः ऐतिहासिक है। इसमें
कथा-वाहिक रूप में प्राचीन ऐतिहासिक ग्रन्थों राज्य शासकों और प्रशस्तियों
के आधार पर ऐतिहासिक वृतान्त प्रस्तुत किये गये हैं। इसकी रचना। 1148 ई.
में प्रारम्भ की गयी थी। कश्मीर के सारे नरेशों के इतिहास जानकारी इस
प्रसिद्ध ग्रन्थ से होती है। इसमें क्रमबद्धता का पूरी तरह निर्वाह किया
गया है। इसी श्रेणी में तमिल ग्रन्थ भी आते हैं। ये हैं नन्दिवक लाम्बकम्,
ओट्टक्तूतन का कुलोत्तुंगज- पिललैत्त मिल, जय गोण्डार का कलिंगत्तुंधरणि,
राज-राज-शौलन-उला और चोलवंश चरितम्। इसी श्रेणी में सिंहल के दो
ग्रन्थ-दीपवंश और महावंश भी आते हैं जिनमें बौद्ध भारत का उल्लेख मिलता है।
गुप्तकालीन
विशाखदत्त का ‘मुद्राराक्षस’ सिकन्दर के आक्रमण के शीघ्र बाद ही भारतीय
राजनीति का उद्घाटन करता है। पोरस, जिसने सिकन्दर के दाँत खट्टे कर दिये
थे। मुद्राराक्षस के प्रमुख पात्रों में एक है। साथ ही साथ, चन्द्रगुप्त
मौर्य चाणक्य तथा कुछ तत्कालीन नृपतियों का भी इसमें उल्लेख मिलता है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी इस संबंध में महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसकी रचना
मुद्राराक्षस के पूर्व ही की गयी थी। इस ग्रन्थ में रचनाकार ने तत्कालीन
शासन-पद्धति पर प्रकाश डाला है। राजा के कर्त्तव्य, शासन-व्यवस्था, न्याय
आदि अनेक विषयों के संबंध में कौटिल्य ने प्रकाश डाला है। वास्तव में
मौर्यकालीन इतिहास का यह ग्रन्थ एक दर्पण है।
पाणिनी का
‘अष्टाध्यायी’ एक व्याकरण ग्रन्थ होते हुए भी मौर्य पूर्व तथा मौर्यकालीन
राजनीतिक अवस्था पर प्रकाश डालता है। इसी तरह पातंजलि का ‘महाभाष्य’ भी
राजनीति के संबंध में चर्चा करता है। ‘शुक्रनीतिसार’ भी एक महत्त्वपूर्ण
ऐतिहासिक ग्रन्थ है जिसमें तत्कालीन भारतीय समाज का वर्णन मिलता है।
ज्योतिष ग्रन्थ गार्गी संहिता पुराण का एक भाग है जिसमें यवनों के आक्रमण
का उल्लेख किया गया है। कालिदास का ‘मालविकाग्निमित्र’ साहित्यिक होते हुए
भी ऐतिहासिक सामग्रियाँ प्रस्तुत करता है। इस ग्रन्थ में कालिदास ने
पुष्यमित्र शुंग के पुत्र अग्निमित्र तथा विदर्भराज की राजकुमारी मालविका
की प्रेम कथा का उल्लेख किया है।
(ख) विदेशी विवरण–देशी
लेखकों के अतिरिक्त विदेशी लेखकों के साहित्य से भी प्राचीन भारत के
इतिहास पृष्ठ निर्मित किये गये हैं। अनेक विदेशी यात्रियों एवं लेखकों ने
स्वयं भारत की यात्रा करके या लोगों से सुनकर भारतीय संस्कृति में ग्रन्थों
का प्रणयन किया है। इनमें यूनान, रोम, चीन, तिब्बत, अरब आदि देशों के
यात्री शामिल हैं। यूनानियों के विवरण सिकन्दर के पूर्व, उसके समकालीन तथा
उसके पश्चात की परिस्थितियों से संबंधित हैं। स्काइलेक्स पहला यूनानी सैनिक
था जिसने सिन्धु नदी का पता लगाने के लिए अपने स्वामी डेरियस प्रथम के
आदेश से सर्वप्रथम भारत की भूमि पर कदम रखा था। इसके विवरण से पता चलता है
कि भारतीय समाज में उच्चकुलीन जनों का काफी सम्मान था। हेकेटियस दूसरा
यूनानी लेखक था जिसने भारत और विदेशों के बीच कायम हुए राजनीतिक संबंधों की
चर्चा की है। हेरोडोटस जो एक प्रसिद्ध यूनानी लेखक था, ने यह लिखा है कि
भारतीय युद्ध प्रेमी थे। इसी लेखक के ग्रन्थ से यह भी पता चलता है कि भारत
का उत्तरी तथा पश्चिमी देशों से मधुर संबंध था। टेसियस ईरानी सम्राट
जेरेक्सस का वैद्य था जिसने सिकन्दर के पूर्व के भारतीय समाज के संगठन रीति
रिवाज, रहन-सहन इत्यादि का वर्णन किया है। पर इसके विवरण अधिकांशतः कल्पना
प्रधान और असत्य हैं।
सिकन्दर के
समय में भी ऐसे अनेक लेखक थे जिन्होंने भारत के संबंध में ग्रन्थों की रचना
की। ये लेखक सिकन्दर के भारत पर आक्रमण के समय ही उसके साथ भारतवर्ष आये
थे। इनमें अरिस्टोबुलस, निआर्कस, चारस, यूमेनीस आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
सिकन्दर के पश्चात् कालीन यात्रियों और लेखकों में मेगास्थनीज, प्लनी,
तालिमी, डायमेकस, डायोडोरस, प्लूटार्क, एरियन, कर्टियस, जस्टिन, स्ट्रेबो
आदि के नाम उल्लेख मेगास्थनीज यूनानी शासक सेल्यूकस की ओर से राजदूत के रूप
में चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में आया था। इसकी ‘इण्डिका’ भारतीय
संस्थाओं भूगोल समाज के वर्गीकरण, पाटलिपुत्र आदि के संबध में प्रचुर
सामग्रियाँ देती हैं। यद्यपि इस ग्रन्थ का मूल रूप अप्राप्य है, पर इसके
उद्धरण अनेक लेखकों के ग्रन्थों में आये हैं। डायमेकस राजदूत के रूप में
बिन्दुसार के दरबार में कुछ दिनों तक रहा जिसने अपने समय की सभ्यता तथा
राजनीति का उल्लेख किया है। इस लेखक की भी मूल पुस्तक अनुपल्बध है तामली ने
भारतीय भूगोल की रचना की। प्लिनी ने अपने ‘प्राकृतिक इतिहास’ में भारतीय
पशुओं, पौधों, खनिज आदि का वर्णन किया। इसी प्रकार एरेलियन के लेख तथा
कर्टियस, जस्टिन और स्ट्रेबो के विवरण भी प्राचीन भारत इतिहास के अध्ययन की
सामग्रियाँ प्रदान करते हैं। ‘इरिथियन’ सागर का पेरिप्लस’ नाम ग्रंथ जिसके
रचयिता का नाम अज्ञात है, भारत के वाणिज्य के संबंध में ज्ञान देता है।
http://vimitihas.wordpress.com/tag/%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%9F%E0%A4%95/
lebih lengkap ada di sini.
http://vimitihas.wordpress.com/tag/%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%9F%E0%A4%95/
lebih lengkap ada di sini.
http://www.accesstoinsight.org/tipitaka/index.html
http://www.pariyatti.org/Resources/Tipitaka/tabid/62/Default.aspx
http://uwacadweb.uwyo.edu/religionet/er/buddhism/btexts.htm
http://kb.sutra.re.kr/ritk_eng/intro/introProject02.do
Tidak ada komentar:
Posting Komentar